Dusari AYODHYA "ORCHA" B211

                  


                 दूसरी अयोध्या ( ओरछा धाम )

भारत देश में बहुत कम लोग ही जानते है की श्री अयोध्या धाम भारत देश में दो स्थानों पर स्थित है। पहला श्री राम लला का जन्मस्थान श्री अयोध्या धाम के पावन धरती का सौभाग्य होने का दर्जा उत्तरप्रदेश राज्य को प्राप्त है दूसरा जिसे बहुत कम लोगों को मालूम है यह पावन धरती भारत देश के मध्यप्रदेश राज्य के निवाड़ी जिले में स्थित ऐतिहासिक नगर के "ओरछा" पावन धरा बुंदेलखण्ड क्षेत्र में बेतवा नदी के किनारे बसा हुआ है। उत्तरप्रदेश राज्य के झांसी जिले से 18 किमी दूरी पर स्थित है। संवत 1631 में चैत्र शुक्ल नौमी सोमवार पुक्ख नक्षत्र श्री रामराजा भगवान को अयोध्या पावन धरती से ओरछा की पावन धरती पर श्री महारानी गनेशी कुंवर कमलापति जू , महराज मधुकरशाह नरेश की महारानी (धर्मपत्नी) थी। इन्होंने अपनी भक्ति व तपस्या द्वारा साक्षात रूप में प्रकट करके ओरछा धाम में स्थापित किया था। तभी से यहाँ कहावत है कि "अवध की रानी ने तो वनवासी बनाये राम , पर मधुकर की रानी ने रामराजा बनायें है " तभी से भगवान श्री राम को रामराजा की गद्दी मिली है। ओरछा धाम में रामलला यहाँ पर रामराजा , राजा के रूप मे स्थापित है। ओरछा के पावन भूमि को दूसरी अयोध्या का दर्जा कैसे प्राप्त हुआ इसकी एक रोचक सत्य कथा इस प्रकार से है । विक्रम संवत् १५५४-९२ में जब महाराज मधुकरशाह राजा हुये तो रानी कुवर गणेशी कमलापति जू अपनी तपस्या की शक्ति से रामराजा को लेकर आयी थी । भगवान श्री राम के ओरछा आने का इतिहास बडा रोचक है। ओरछा नरेश मधुकरशाह जू महाराज राधा बल्भवी सम्प्रदाय के श्री कृष्ण भक्त थे । वे भगवान श्री कृष्ण के समक्क्ष प्राचीन जुगल किशोर मंदिर में सखी भाव से उपस्थित होकर नृत्यगायन करते थे । राजा मधुकरशाह कृष्ण भक्त थे । श्रीकृष्ण की लीलायें उन्हें अधिक पसंद थी वे सखी रूप धारण कर सखी भाव का पूरा प्रदर्शन करते थे । राजा मधुकरशाह की रानी गनेश "कुंवरिगणेश" श्रीराम की भक्त थीं। उनके प्रभु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम थे। जिनके सारे क्रियाकलाप मर्यादित होते थे। उन्हें राजा का यह कार्य राज्य मर्यादा के विपरीत लगा उन्होंने एक बार राजा से निवेदन किया महाराजा प्रजा के समक्ष आप नारी भाव धारण करके नृत्य में लीन हो जाते है। इसका प्रजा पर क्या प्रभाव पड़ता होगा ? यह राजकीय सम्मान और मर्यादा का उलंघन है। मंदिर सार्वजनिक स्थान होता है। वहां सभी पहुंचते हैं। भले ही आप भगवान के समक्ष नृत्य करते हैं। मगर उसका प्रभाव जनता पर गलत पड़ता है। महाराज मधुकर शाह पर एक तीखा व्यंग्य किया। राजा मधुकर शाह रानी का व्यंग्य वाण सहन न कर पाय। वे बोले कमला जू आप मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भक्त हो आपके भगवान श्रीराम तो केवल बारह कलायें धारण करते हैं पर हमारे प्रभु लाडलीलाल मदनमोहन सोलह कला के पूर्ण अवतार है। संसार में एक मात्र पुरूष तो वही है एक मनमोहन बाकी सब नारी है। वे बोले भगवान कृष्ण भी तो नृत्य करते थे, रास रचाते थे भगवान के लिये नृत्य अति प्रिय वस्तु है । तो हम भी उनके दरबार में नृत्यगान करते है। राजा मधुकरशाह श्रीकृष्ण के गुणों का बखान कर उन्हें सर्वश्रेष्ठ कहने लगे, रानी बोली महाराज भगवान श्री कृष्णचन्द्र ने तो बचपन में नृत्य किया है। जब वे ग्वाल बाल थे। द्वारकाधीश बन जाने पर उन्होंने राज्य की गरिमा और मर्यादाओं का निर्वाह किया है। मर्यादा सर्वश्रेष्ठ है। और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम सर्वश्रेष्ठ है। रानी गणेश कुंअरि अवधपुरी में जाकर भगवान श्रीरामलला के दर्शनों की इच्छा कर रही थीं तो उसी समय राजा मधुकरशाह ने रानी से वृन्दावन चलने की बात कही । बस इसी बात पर राजा और रानी में विवाद छिड़ गया राजा वृन्दावन चलने की रट लगाये थे और रानी अवध जाने की जिद कर रही थीं तर्क देकर अपने अपने इष्टदेवों को श्रेष्ठ बता रहे थे। और राजा मधुकर अपनी रानी से रूष्ट हो गये और बोले ठीक है आप अवधपुरी अवश्य जाओ और जब लौटो तो अपने इष्टदेव भगवान श्रीराम को साथ लेकर ही वापिस लौटना वरना अपना मुंह दुबारा हमको मत दिखाना महाराज मधुकरशाह का यह वचन रानी के हृदय में एक बाण की तरह लगा उसे अपने मन में बिठा लिया राजा के गुरू हरीराम व्यास ने रानी को बहुत समझाया कि वह अपनी जिद छोड़ दे और पति की बातों का बुरा न मानें मगर वह समझाने पर भी टस से मस नही हुई मामला अपने इष्ट की प्रधानता का था और रानी ने प्रण कर लिया वे अब अयोध्या जरूर जायेंगी, और वहां से रामलला को साथ लेकर ही लौटेगी । और महारानी की अवधपुरी जाने की तैयारी शुरू हो गई । अषाढ शुक्लपक्ष १२ को विक्रम संवत १६३० को सोमवार के दिन महारानी कुंवरि गणेश ने ओरछा से अवध अयोध्या को प्रस्थान किया गुरू ब्राह्मणों ने महारानी जी आर्शीवाद प्रदान किया । महारानी जी की यात्रा के बाद महाराज श्री मधुकरशाह भी वृंदावन चले गये और महारानी के बारे में सोचते थे , हे केशव पता नही महारानी वहां किस हाल में होंगीं । तभी महाराज को स्वप्न में आकाशवाणी हुई हे राजन आप चिन्ता न करों आपकी रानी भगवान श्रीराम की परम भक्त है । उसको काशी विश्वनाथ का वरदान है। उसे रामलला का शीघ्र दर्शन होगा तथा शीघ्र ही रामराजा भगवान को लेकर ओरछा आवेगी इधर महारानी जू ने लक्ष्मण किला के समीप जाकर सरजू मैया की गोदी में बैठकर कठिन तपस्या करने लगी रात दिन राम जी का नाम जप ध्यान करने लगी तथा जल भोजन निद्रां का त्याग कर दिया तथा वायु का सेवन मात्र करती थी तथा भगवान की एक माह तक कठिन तपस्या करते हुये बीत गया पर भगवान का दर्शन नही हुआ अपने हृदय में भगवान से प्रार्थना करने लगीं और बोलीं हे प्रभु यदि मैं नरक के डर से तेरी पूजा भजन करती हूँ तो मुझे नरकाग्नि में भस्म कर दें। यदि स्वर्ग के लोभ से तेरी सेवा करती हूँ तो स्वर्ग का द्वार मेरे लिये सदा को बंद कर दें अगर तेरे लिये ही पूजा करती हूं तो अपना परम प्रकाशमय रूप दिखलाकर मुझे कृतार्थ करें । पर भगवान का दर्शन नहीं हुआ मन में महारानी सोचने लगीं यदि हे अयोध्यानाथ आप मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं कर सकते तो ठीक है । पर मेरा शरीर अब नहीं रहेगा मैं अपनी देह का परित्याग कर आपके पास आना चाहती हूं | मेरी यह इच्छा तो आप स्वीकार कर लीजिए । रात्रि १२ बजे का समय था । सम्पूर्ण अयोध्यापुरी उस समय निद्रादेवी की आगोश में सो रही थी । सरजू मैया के घाट पर सूनसान था कल-कल गति से सरजू मैया के जल की धारा प्रवाहित हो रही थी महारानी ने सरजू के जल में प्राण त्यागने के लिये छलांग लगा दी पर देवकृपा से संरजू मैया ने उन्हें किनारे पर लगा दिया तीन बार उन्होने प्राण त्यागने का प्रयास किया और तीनों बार सरजू मैया ने उन्हें बाहर किनारे पर लगा दिया। चौथी बार जैसे ही सरजू में छलांग लगाई सरजू के जल की धारा और महारानी जी के नेत्रों की जलधारा एक हुई। और एक दिव्य प्रकाश हुआ तथा एक सांवला सलौना बालक महारानी जी को गोद में आ गया। ये बालक ही सर्वेश्वर जगत पालक जगत नियन्ता प्रभु भगवान श्रीराम थे । महारानी जी प्रसन्न होकर जल से बाहर निकल पडी बालक रूपी प्रभुश्रीराम को पाकर आनन्द से भर गयी मुख से वाणी नही निकल रही थी प्रार्थना करना चाहती थी । पर मुंह से कुछ बोल ना सकी नेत्रों से निरन्तर अश्रुधारा बह रही थी । बालक रूपी राम ने महारानी जी को अपने उस स्वरूप का दर्शन कराया जो देवताओं को भी दुर्लभ है। चतुर्भुज स्वरूप को देखकर महारानी जी बोल पडी हे प्रभु जी आपकों लेने को आयी हूं। आप ओरछा चलियें , भगवान बोले मैया में अवध को नहीं छोड़ सकता क्यूकि अयोध्या मेरा घर है ।

अवधपुरीम् ना परितज्यों पादमें कम न गच्छति (बाल्मीक रामायण)

अयोध्या के समान मुझे कही अच्छा नहीं लगता राम जी बोले मैया में अवध का त्याग कैसे करूंगा। में एक नहीं हूं। मेरा परिवार श्री किशोरी जू मैया भरत भैया लखन शत्रुघ्न मेरा प्रिय सेवक हनुमान इनकों में कैसे छोड़ पाऊंगा। रानी जी बोली आप सभी को संग में ले लीजियें , प्रभु बोले नहीं मैया आप तो केवल मुझकों ही लेने के लिये आयी हो, अच्छा पहले ये तो बताओं मुझे ओरछा क्यू ले जाना चाहती हो महारानी बोली प्रभू जी आपकों ले जाकर ओरछा का राजा बनाना चाहती हूं। भगवान बोले में ओरछा धाम तो चलूंगा पर मेरी कुछ शर्ते है। जिन्हें आपको मानना ही होगा । 

१.  बालक रूपी राम ने कहा मैया में ओरछा तो चलूंगा पर में ही वहां का राजा बनूंगा में राजा बनकर सिंहासन पर बैठूंगा । वह स्थान रामराजा के नाम से विख्यात होगा। अब वहां किसी का शासन नही चलेगा। चाहे आपके महाराज ही क्यों न हो।

२.  मेरी यात्रा पैदल होगी, पुक्ख नक्षत्र में ही ओरछा प्रस्थान करूंगा जहां पुक्ख नक्षत्र समाप्त हो जायेंगा में वही विश्राम करूंगा पुनः पुक्ख आने पर मेरी यात्रा होगी । 

३.  मैं केवल दिन में ओरछा रहूंगा रात्रि शयन अयोध्या में ही करूंगा।

४.  मैं जिस जगह बैठ जाऊंगा फिर वहां से कही दूसरे मंदिर (भवन) में नही जाऊंगा।

महारानी कुवरि गणेशी ने कहा प्रभु आप ओरछा चलियें मुझे आपकी शर्ते स्वीकार है। उसी समय प्रभु अपना चतुर्भुज स्वरूप छोड़कर महारानी जी की गोद में आ गये, उस समय श्रावण का महीना था रिमझिम रिमझिम पानी बरस रहा । था। महारानी जी रामजी को गोद में लेकर साधू सन्तों के साथ ओरछा को वापिस चलने को तैयार हुई ।आपकों श्रावण शुक्ल पक्ष पंचमी विक्रम संवत १६३० को रामराजा का दर्शन प्राप्त हुआ था। अयोध्या में यह खबर आग की तरह फैल गयी थी । कि ओरछा की रानी अवध के रामलला को ओरछा ले जा रही है। सारा साधू समाज अयोध्या का इक्ट्ठा हो गया। सब चिल्लाने लगे। अरे प्रभु रामराजा अयोध्या को त्यागकर महारानी कुवरि गणेश जी के साथ ओरछा धाम बुन्देलखण्ड में जा रहे है। तभी उसी समय आकाशवाणी हुई । आप लोग दुख मत करो "मैं केवल दिन में ओरछा रहूंगा । तथा शयन तो अयोध्या में ही करूंगा" मैं विवश हूं। मैं अपने भक्तों की इक्छा का परित्याग नही कर सकता (अहंभक्त पराधीना) गीता भक्तों की इच्छा के लिये ही लीला अवतार धारण करता हूं। दिन में ओरछा रहूंगा शयन अवध में करूंगा। इसीलिये सन्तजनों ने कहा है , सर्वव्यापक राम के दो निवास है , अब महारानी ने साधू समूह के साथ पुक्ख नक्षत्र में यात्रा आरम्भ की अवध से ओरछा तक आने में रानी जी को पैदल यात्रा में ८ माह २७ दिन का समय लगा इधर महाराज मधुकरशाह को भगवान ने स्वप्न दिखाया कि में ओरछा रानी जी के साथ आ रहा हूं। आप भी अवधपुरी चले आये स्वप्न पाकर महाराज प्रसन्न हुये, सोचने लगे भगवान श्रीरामलला ने महारानी जी पर जो कृपा की है। वह अद्भुत है। मुझे क्या करना चाहिये सो प्रभु के लिये बैठने को एक सुन्दर मंदिर बनवाना चाहिये । आपने संवत १६३० में एक विशाल मंदिर का निर्माण कराया कारीगरों को बुलवाकर कहा ऐसा भव्य मंदिर बनाओं जैसा कही और न हो मंदिर का निर्माण ऐसी जगह पर करों कि मैं और महारानी जब राजमहल से सोकर उठे तो सबसे पहले मुझे श्रीरामलला के दर्शन प्राप्त हो मंदिर बनकर तैयार हो रहा था, तभी रानी रामराजा भगवान के साथ ओरछा आ गई उस समय मंदिर का कार्य निर्माणाधीन था, भगवदुइक्छा से महारानी जी को ध्यान नही रहा कि प्रभु ने कहा था कि जहां में बैठ जाऊंगा में वहां से अन्य मंदिर या भवन में नहीं जाऊंगा, बस प्रभु रानिवास जो पूर्व से ही रानीमहल था महारानी ने अपने प्रभु को रसोई कक्ष में एक चौकी पर विराजमान करा दिया और मैया प्रभु की सेवा पूजा स्वयं करने लगी। उधर मंदिर का निर्माण जब पूरा हुआ तो प्रभु ने निज इच्छा से रानीमहल छोडने से मना कर दिया, आचार्य पुजारियों ने कॉफी प्रार्थना की प्रभु आप मंदिर में चले वही पर आपकी सेवा पूजा होगी । रामराजा सरकार ने जब अपना बचन दुहराया तो सभी मौन हो गये कुछ विद्वानों संतों ने मंदिर में भगवान के ना जाने का कारण यू बताया है कि प्रभु ने सोचा होगा कि महारानी जी हमको लेकर ओरछा जी तो सहज में आ गई अब दर्शन पूजा करने पता नही प्रतिदिन आयेंगी या नही तभी तो मेरा मंदिर राजमहल के ठीक सामने बनवाया है। अब में इनका अभिमान चूर करूंगा बस प्रभु ने लीला करके मंदिर में जाने से मना कर दिया था। भगवान बस यही चाहते थे कि हमारा दर्शन करने राजारानी हमारे पास नित्य आया करें भगवान रामराजा का महाराज और महारानी ने सुन्दर सिंहासन काशी जी मंगवाया जो स्वर्ण और चांदी से जणित था, बिठाकर राजतिलक कर दिया बहुत बड़ा उत्सव ओरछा में मनाया गया इसीलिये सन्तजनों ने कहा है कि :- अवध की रानी ने तो वनवासी बनाये राम पर मधुकर की रानी ने रामराजा बनायें है।।  महारानी कुवर गणेशी जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन प्रभु की सेवा और भगवान के भजन में बिताया वह प्रभु की सेवा करते करते विक्रम संवत १६४२ ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष निर्जला एकादशी को इस ओरछा की पावन धरा को त्याग कर श्रीराम के पास चली गईं । भक्तमाल ग्रंथ में लिखा है पूर्व जन्म में महाराज अयोध्या नरेश दशरथ के अवतार थे और महारानी कैकयी की अवतार थी । दशरथ और बाद में कैकयी की इच्छा थी की भगवान श्रीराम को राजा के रूप में देखे पर दशरथ जी के जीते जी ऐसा न हो सका तभी कलयुग में महराज मधुकरशाह व महारानी कुँवरि गणेशी का अवतरण हुआ था।सम्पूर्ण विश्व में ओरछा का रामराजा मंदिर ऐसा मंदिर है जहाँ पर रात्रि में प्रभु के कपाट बंद होने के समय सेना के जवान गार्ड ऑफ ऑनर (सेल्यूट) देते हैं । इस तरह राजा (रामराजा) को सम्मान दिया जाता है । 

🙏🚩जय श्री राम🚩🙏 



                         लेखक :- प्रशांत शर्मा


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