बाबा किनाराम भाग-२ B73
--------:अघोर साधक बाबा कीनाराम:-------
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भाग--02
पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन
एकाएक बाबा कालूराम रुक गए और पलटकर गंगा की ओर देखकर बोले--कीनाराम, देख, कोई शव बहा जा रहा है। कीनाराम तुरन्त बोले--नहीं बाबा, वह जिन्दा है। तो बुला उसे। कीनाराम वहीँ से चिल्लाकर बोले--इधर आ, कहाँ बहता जा रहा है ? तत्काल वह शव विपरीत दिशा में घूमा और घाट के किनारे आ लगा। फिर धीरे-धीरे उठा और फिर पूरी ताक़त बटोर कर खड़ा हो गया सामने आकर हाथ जोड़कर, मूकवत। कीनाराम बोले--खड़ा-खड़ा मेरा मुंह क्या देख रहा है ? जा अपने घर, तेरी माँ रो-रो कर पागल हो रही है।
तत्काल वह दौड़ता हुआ घर की ओर भागा और माँ से अपनी जीवित होने की कथा सुना डाली। माँ को विश्वास नहीं हो रहा था। वह उसी हाल में अपने बेटे को लेकर उलटे पांव घाट की ओर भागी। तब तक सभी लोग घाट की सीढ़ी चढ़कर सड़क पर आ गए थे। तभी कीनाराम की दृष्टि सामने पडी। देखा--वही बालक अपने माँ के साथ भागता हुआ चला आ रहा है।
कीनाराम कुछ समझ पाते, उस बालक की माँ आकर कीनाराम के पैरों पर गिर पड़ी। कीनाराम ने उसको उठाया, आने का कारण पूछा तो वह बोल उठी--बाबा ! आपकी कृपा से मेरा बेटा पुनः जीवित हो गया। इसके लिए मैं आपकी सदा ऋणी रहूंगी। लेकिन यह आप ही हैं जिन्होंने इसे जीवन दान दिया है। अब यह आपका ही है। मेरी दी हुई जिंदगी तो ख़त्म हो चुकी थी, बाबा, अब आप इसे अपने चरणों में स्थान दीजिए। इसे मैं आपको सौंपती हूँ। कीनाराम बाबा कालूराम की ओर प्रश्नभरी दृष्टि से देखने लगे। बाबा कुछ बोले नहीं, बस सिर हिलाकर उन्होंने अपनी सहमति दे दी। आगे चलकर बाबा ने उस बालक का नाम 'राम जियावन' रखा जो आगे चलकर सिद्ध अघोरी बने।
सभी लोग भद्रवन पहुंच बाबा की कुटिया के पास पड़ी हुई चटाई पर बैठ गए। सभी लोग आराम करने लगे। रात्रि में श्मशान घाट जाना था साधना करने।
एक दिन कीनाराम से रहा नहीं गया। बाबा कालूराम के पास पहुंचे और उनके पास चुपचाप बैठ गए। बाबा ने पूछा--कीनाराम, क्या बात है चुपचाप आकर बैठ गए हो मेरे पास। कोई जिज्ञासा तो नहीं है ?
कीनाराम कुछ पल किसी गहरे सोच में डूबे रहे। फिर बोले--बाबा बचपन से मेरा मन अशान्त था। हर पल एक खालीपन-सा परेशान करता रहता। कुछ समझ में नहीं आता तो 'राम-राम' की माला जपने लगता। गुरु बनाया, उनके सान्निध्य में साधना भी की, लेकिन मन नहीं लगा। भारत के सभी धर्म-स्थलों पर गया। फिर भी मन अशान्त रहा। जब गिरनार गया तो भगवान् दत्तात्रेय मन्दिर में रहकर कठोर साधना की। भगवान् दत्तात्रेय के दर्शन लाभ भी हुए और ऐसी अनुभूति हुई कि भगवान् दत्तात्रेय कह रहे हैं कि काशी जाओ, वहीँ तुम्हारा कर्मक्षेत्र मिलेगा। बस, फिर क्या था, काशी के लिए चल पड़ा। सर्वप्रथम गंगा स्नान कर् भगवान् विश्वनाथ का स्मरण कर् एक वृक्ष के नीचे बैठा रहा। बस, आपको देखा तो मन को बड़ी शान्ति मिली। इसके बाद की तो सारी कथा आपको पता ही है।
बाबा कालूराम कुछ पल चुप रहे फिर बोले--कीनाराम ! अब समय आ गया है रहस्य बतलाने का...तो सुनो, तुम्हारा जन्म विशेष् कार्य प्रयोजन के लिए हुआ है। तुम तो जीवन-मुक्त जाग्रत अघोर साधक हो। पता नहीं, कितने जन्मों से तुम्हारी साधना चली आ रही हैं। आज तुम्हारे पास जो सिद्धियां हैं, वे जन्म-जन्मान्तरों से चली आ रही हैं। तुम्हें स्वयम् पता नहीं है। अघोर संप्रदाय अति प्राचीन है। अघोर साधक कभी भी जगत् के सामने नहीं आते। मुक्तावस्था को उपलब्ध् होने के लिए उनकी साधना चलती रहती है। लेकिन इधर कुछ काल से अवैदिक मतों का काफी बोलबाला हो गया। साधना के नाम पर भोली-भाली जनता को ठगा जा रहा है जिससे हमारे देश का अति प्राचीन अघोर पन्थ भ्रष्ट हो रहा है। महादेव की इच्छा से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम्हें अघोर पन्थ की अलख जगानी है, अलग पहचान और चेतना जगानी है ताकि सारा संसार जान सके अघोर पन्थ का वास्तविक रहस्य और जहाँ तक गुरु की बात है, वह गुरु मैं ही हूँ तुम्हारा जन्म-जन्मान्तर से।
बाबा कालूराम ने कीनाराम के सिर पर अपना हाथ रख दिया। जैसे ही हाथ रखा, कीनाराम के सामने सारा रहस्य खुल गया और जन्म लेने का उद्देश्य भी।
समय अपनी गति से चलता रहा। बाबा कालूराम अब अपनी साधना में अधिक से अधिक लीन रहने लगे। बाकी के कार्य कीनाराम करने लगे। कीनाराम के चमत्कार और लोक-कल्याण के कार्य चारों ओर फैलने लगे। कोई दुःखी और निराश होकर नहीं जाता। जो लोग सच्चे मन से साधना करना चाहते थे, कीनाराम उन्हें सच्चा मार्ग बतलाते और जो आडम्बर करते, उन्हें वे दण्ड भी देते। धीरे-धीरे काशी नरेश राजा बलवन्त के कानों तक कीनाराम की लोकप्रियता की गाथा पहुँचने लगी। एक दिन वे कीनाराम के पास आये। राजा के नम्र स्वभाव और उनकी भक्ति देखकर कीनाराम ने उन्हें आशीर्वाद दिया। कीनाराम के लाख मना करने पर भी राजा बलवन्त सिंह ने उनका निवास स्थान पक्का बनवा दिया जो आजकल 'कीनाराम स्थल' या 'क्रीमकुण्ड' के नाम से प्रसिद्ध है।
बाबा कीनाराम का जन्म सन् 1684 में वाराणसी से 150 किलोमीटर दूर #रामगढ़ गांव में हुआ था। बचपन से ही एकान्त में रहना, किसी पेड़ के नीचे ध्यान करते रहना और हर समय केवल राम-राम का जप करते रहना उनका रोज का कार्य हो गया था। परिवार के लोग उनके आध्यात्मिक झुकाव को देखकर डरने लगे कि कहीं कीनाराम बड़े होकर साधू न् बन जाएं। बचपन से ही जो भी वे कह देते, वह हो जाता था। जब कीनाराम बारह वर्ष के हुए तो उनका बाल विवाह कर दिया गया। बाल्यावस्था होने के कारण उन्हें विवाह आदि के बारे में कुछ पता नही था। जब वे पन्द्रह वर्ष के हुए तब भी उनके स्वभाव में कोई अन्तर नहीं आया। तब उनके माता-पिता ने बहू की विदा करा लाने की तिथि तय कर दी। पहले बाल विवाह हो जाया करता था और गौना और बहू की विदा लड़के के वयस्क हो जाने पर होती थी। कीनाराम के माता-पिता कीनाराम के बैरागी बन जाने के डर से ऐसा करने के लिए विवश हो गए थे। लेकिन एक दिन पहले कीनाराम दूध-भात खाने के लिए ज़िद करने लगे। किसी भी शुभ कार्य में दूध-भात खाना अशुभ माना जाता है। पर कीनाराम की ज़िद के आगे बेबस होकर माँ ने उन्हें दूध-भात खाने को दे दिया। कीनाराम बड़े चाव से दूध-भात खाकर सोने चले गए। दूसरे दिन कन्या के घर से समाचार आया कि रात में कन्या की मृत्यु हो गयी।
कुछ दिनों के बाद एक दिन कीनाराम बिना कुछ बतलाए घर छोड़कर चले गए। घूमते-घामते वे बलिया पहुंचे। वहां पर वैष्णव शिवाराम के सान्निध्य में साधना करने लगे। लेकिन वहां भी वे जो कुछ कहते, वह पूरा हो जाता। उन्हें स्वयम् पता नहीं होता कि यह सब कैसे हो जाता है। एक दिन कीनाराम क्या देखते हैं गुरु शिवाराम के पास एक युवती बैठी है। कीनाराम को आश्चर्य हुआ कि सन्यासी गुरु के समीप युवती का क्या काम ! बाबा बड़े स्नेह से उससे वार्ता कर् रहे थे। कीनाराम को देखकर गुरु शिवाराम बोले--कीनाराम ! तुम मेरे परम प्रिय शिष्य हो इसलिए तुमसे कहता हूँ। मैं इस युवती से विवाह करने जा रहा हूँ। अब से यह तुम्हारी गुरुमाता होंगी।
कीनाराम कुछ नहीं बोले। अपने गुरु को प्रणाम कर वह आश्रम से बाहर चले आये और चुपचाप आश्रम के सामने पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गए। पता नहीं क्यों उन्हें ग्लानि होने लगी। बस, बिना कुछ बोले तत्काल उन्होंने उस आश्रम को छोड़ दिया। भारत के धर्मस्थलों की यात्रा कर गिरिनार चले गए। वहां पर 10 वर्ष तक घोर तपस्या कर पूर्व जन्म की सुप्त सिद्धियों को जाग्रत कर् काशी चले गए। राजा बलवन्त सिंह उनके परम भक्त थे। उनसे दान में मिले कीनाराम स्थल (क्रिमकुण्ड) की स्थापना की और जो अघोरी श्मशान, वृक्ष, नदी तट पर साधना करते थे, उनके लिए विशेष् साधना-स्थल की व्यवस्था की ताकि अघोरी साधक इधर-उधर भटकने के लिए बाध्य न हों। उनके लिए कुछ कड़े नियम बनाये गए जिनका कोई अघोरी उल्लंघन नहीं कर् सकेगा। अघोरी साधक पूर्ण ब्रह्मचारी रहेगा। नारी-भोग से सदा दूर रहेगा। किसी के घर के भीतर प्रवेश नहीं करेगा। सार्वजनिक स्थलों पर अपनी विद्या का प्रदर्शन नहीं करेगा। अपनी साधना में लीन रहेगा। मदिरा का सेवन साधना की आवश्यकता और मर्यादा में रहकर करेगा, सार्वजनिक स्थलों, श्मशानों, पूजा-स्थलों और मंदिरों पर नहीं। अन्य इसी प्रकार के कठोर नियम अघोर साधकों के लिए बनाये जिनका हर एक अघोरी साधक के पालन के लिए अनिवार्य कर् दिया। जो भी साधक इनका उल्लंघन करता पाया जाता, उसे कठोर दण्ड का भागी बनाया जाता। इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे अघोर साधना और अघोरियों के लिए समाज में फैली भ्रान्त धारणा दूर होने लगी। लोग उन्हें अब बड़े श्रद्धा-भाव से देखने लगे। जब भी समय मिलता, अनेक सिद्ध अघोरी साधक लोक-कल्याण के कार्य भी करते। धीरे-धीरे दूर प्रान्तों के अघोरी साधक बाबा कीनाराम के चमत्कारों और उनके ज्ञान से अभिभूत होकर उनके अनुयायी बनने लगे और गुप्त रूप से उनके साधना नियमों के अनुसार अपनी साधना करने लगे। आज इक्कीसवीं सदी है। चार सदी बीत चुकी हैं। लेकिन बाबा कीनाराम ने जो ज्योति जलाई वह आज भी अनवरत चल रही है। बाबा कीनाराम के अनेक भक्त देश-विदेश में हैं। वे गुरु पूर्णिमा के अवसर पर लाखों की संख्या में कीनाराम स्थल पर आते हैं और उस महान् साधक से अपने सुखमय जीवन की कामना करते हैं। बाबा ने जो धूनी जलाई, वह आज तक अनवरत जल रही है।
शेष फिर--
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