बाबा किनाराम भाग-१ B72
------:अघोर साधक बाबा कीनाराम:-------
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भाग--01
यह घटना 1757 की है जब एक महान् अघोर साधक अपने गुरु को खोजते- खोजते गिरिनार की लम्बी यात्रा करते हुये काशी के हरिश्चन्द्र घाट के महाश्मशान पहुंचे। चुपचाप एक कोने में बैठे हुए अपने गुरु को निहार रहे थे। उनके नेत्र सहसा ही गीले हो गए थे। बस, वे जानना चाह रहे थे कि गुरु उन्हें पहचानते भी हैं या नहीं।
प्रातःकाल का समय था। सर्द हवा पूरी तेजी से चल रही थी। भगवान् भास्कर धीरे-धीरे नीले आकाश में अपनी सिन्दूरी आभा बिखेर रहे थे। काशी का वह पूरा घाट स्वर्ण आभा से मण्डित हो गया था जिस कारण मानो गंगा की धारा में हज़ारों स्वर्ण कण बिखरे पड़े थे और अपनी चमक से अपनी असीम ऊर्जा बिखेर रहे थे। केदार घाट पर केदारेश्वर के मन्दिरोँ से घण्टों की गम्भीर आवाज़ एक प्रकार से आध्यात्मिक चेतना-सी जाग्रत कर् रही थी। श्मशान की जलती चिताएं वायु के झोंकों से और भी विकराल हो रही थीं और कुछ बुझ चुकी थीं। श्मशान के चारों तरफ फैली बिखरी हड्डियां, मालाएं, मुर्दे के जलने से निकलती गन्ध--सब मिलकर एक मिला-जुला-सा रहस्यमय वातावरण उतपन्न हो रहा था। पीपल के पेड़ पर बैठे कौओं और गिद्धों की कर्कश ध्वनि वातावरण को और भी भयानक बना देती। ऐसा लगता था जैसे चिताओं में सुलगती आत्माएं मुक्ति की गुहार लगा रही हों। गंगा की उत्ताप तरंगें गतिमान वायु से टकराकर छप-छप कर् रही थीं, मानों व्याकुल चिताओं को शान्ति प्रदान करने की कोशिश कर् रही हों।
एक ओर सृजन हो रहा है और दूसरी ओर महान् सत्य साकार हो रहा है। हरिश्चन्द्र घाट मुक्तिदायिनी काशी का प्रागेतिहासिक महाश्मशान है। जहाँ देवाधिदेव मृत्युंजय भगवान् शिव का प्रिय निवास है। कभी इसी शमशान घाट पर राजा हरिश्चंद्र डोम सरदार की चाकरी करते थे और उनकी पत्नी रानी तारा सर्प-दंश से मृत अपने पुत्र रोहिताश्व का अन्तिम संस्कार हेतु जब हरिश्चन्द्र के सामने उपस्थित हुई तो अपने कर्म के प्रति सजग हरिश्चन्द्र ने बिना शमशान का कर चुकाए अन्तिम संस्कार के लिए मना कर् दिया था।
इसी महान् श्मशान में महाश्मशानेश्वर महादेव के समक्ष एक साधक अविचल मुद्रा में ध्यानस्थ था। तेजश्वी मुख, शुभ्र् श्वेत वस्त्र, ऊपर का भाग् निर्वस्त्र, गले में रुद्राक्ष की माला, शरीर पर चिता की राख लपेटे घनी जटा- जूट। ऐसा लग रहा था मानों साक्षात् महा मृत्युंजय समाधिष्ठ हैं।
सूर्य की रक्तिम आभा उस तेजस्वी के मुख को और भी रक्तिम कर रही थी। पास ही एक झोला पड़ा था और पड़ी थी सिन्दूर पुती हुई एक मानव खोपड़ी। धीरे-धीरे सन्यासी अपने नेत्र खोलता है, चारों तरफ सरसरी दृष्टि से लोगों को देखता है, फिर महादेव को प्रणाम कर कुछ मन्त्र पढ़ता है।
जलती चिताओं के पास पहुँच कर, उसमें से भस्म लेकर शरीर में लगाकर, अपने गन्तव्य की ओर चलने से पहले ज़मीन पर पड़ी उसी सिद्ध खोपड़ी से बोलता है--चल रे ! काहे ज़मीन पर पड़े-पड़े सो रहा है ?
ये थे महान् अघोरी साधक कालूराम। उनका रोज़ का काम था साधना करना, कभी-कभी शव-साधना करना। यही क्रम वर्षो से चलता आ रहा था। प्रातः उठते ही अपनी सिद्ध खोपड़ी को आवाज़ लगाते। खोपड़ी हवा में उछलकर बाबा के हाथों में आ जाती और फिर उसे हाथ में लेकर भद्रवन की ओर चल पड़ते। आज जहाँ #क्रीमकुण्ड है, वहां पहले घना वन था--औघड़ साधकों का साधना-स्थल। तमाम औघड़ साधक वृक्षों के नीचे बैठे साधना करते रहते। बाबा कालूराम का उसी भद्रवन में एक विशेष् स्थान था जो वर्तमान में क्रीमकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। इसी स्थान में आज उनकी समाधि भी है।
खैर, वह मानव खोपड़ी आज रोज की तरह उछलकर बाबा के हाथों में नहीं आयी, जहाँ की तहाँ पड़ी रही। बाबा कालूराम को पहले तो थोड़ा आवेश आ गया, उनका चेहरा तमतमा गया। लेकिन जब उन्होंने नज़र घुमाकर देखा--श्मशान के पास घने पीपल के वृक्ष के नीचे एक युवा साधक साधन-रत है। बीस-बाइस साल का युवक, हल्की-हल्की दाढ़ी-मूंछ, बड़े-बड़े घने घुंघराले काले बाल कंधों तक फैले हुए, शुभ्र् श्वेत वस्त्र, गले में रुद्राक्ष की पतली माला, हाथ में कमण्डल--साक्षात् बाल शिव जैसा मोहक स्वरूप। बाबा कालूराम को तुरन्त आभास हो गया कि वह कोई साधारण युवक नहीं है, कोई सिद्ध युवा साधक है। इसी युवक ने मेरी सिद्ध मानव खोपड़ी को स्तंभित कर् रखा है।
बाबा को अब किसी प्रकार का क्षोभ नहीं रहा, बल्कि उस साधक को देखकर उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ आया--जैसे कोई अपना वर्षों से बिछुड़ा हुआ अचानक सामने आ गया हो। बाबा कालूराम चलते हुए उस युवक के पास पहुंचे। युवक ने झुककर बाबा कालूराम का चरण स्पर्श किया और कहा--मैं कीनाराम और यह मेरा शिष्य बीजाराम है। बीजाराम ने भी बाबा का झुकाकर चरण स्पर्श किया। बाबा ने पूछा--काशी में कैसे आना हुआ ?
कीनाराम बोले--गिरिनार से आ रहा हूँ तपस्या पूर्ण करके अपने गुरु की तलाश में। अनुभूति हुई कि गुरुदेव का दर्शन काशी में होगा, बस चला आया।
इतना कहकर कीनाराम चुप हो गए। बाबा कालूराम बस मुस्करा दिए, फिर बोले--तेरा गुरु तो तुझे मिल जायेगा, पहले कुछ खिलाओ, बड़ी भूख लगी है।
क्या खाएंगे ?--कीनाराम ने पूछा।
मछली खाने की इच्छा हो रही है।--बाबा कालूराम बोले। कीनाराम गंगा की ओर मुंह करके खड़े हो गए, फिर भगवती गंगा को हाथ जोड़कर उन्होंने प्रणाम किया। फिर कोई मन्त्र बुदबुदाया--देखते ही देखते दर्जनों मछलियां गंगा से उछल- उछल कर सामने जलती हुई चिता की आग में गिरने लगी। धड़ाधड़ एक के बाद एक मछली जलती चिता में गिर रही थी। बाबा कालूराम चिल्लाये--अरे ! पूरी गंगा की मछली निकाल देगा क्या ? बस कर, कीनाराम, बहुत है।
वहां पर खड़े लोगों ने देखा--चिता मछलियों से भर गई थी। कीनाराम बोले--बीजाराम, जा अच्छी-अच्छी भुनी हुई मछली ले आ बाबा के लिए। बीजाराम मछली निकाल कर ले आया।बाबा आनंद-मग्न होकर मछली खाने लगे। इसके बाद बाबा कालूराम, कीनाराम और बीजाराम एक साथ चल पड़े भद्रवन की ओर।
शेष फिर--
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