महामाया B40
गृहिणी पेज - २४१ ( संक्षेप में )
दिसम्बर१९१८ के अन्त में एक दिन श्रीमाँ सारदा देवी अपने मायके जयरामवाटी में सदर दरवाजे पर बैठी थीं । उनके दो भाइयों में आपसी तनातनी हो गई ।बात छोटी सी थी । धान को खेत से लाने के लिए एक भाई ने रास्ता संकरा कर दिया था । दूसरे भाई ने आपत्ति जताई , दोनों भाइयों के आपसी झगड़े को श्रीमाँ ने शान्त कराया ।
फिर जब श्रीमाँ ने अपने क्रोध को पलभर में शान्त किया तब वे सोचने लगी । क्रीड़ा भूमि के समान इस संसार के स्वार्थ - संघर्ष के पीछे जो शाश्वत शान्ति विराजमान है , वह उनके आ जाने से वे मुस्कुराकर कहने लगीं , "महामाया की कैसी माया है ! यह अनन्त संसार पड़ा हुआ है; ये वस्तुएँ भी पड़ी रहेंगी - क्या लोग इतना भी नहीं समझते ?" इतना कहकर वे हँसते - हँसते लोटपोट हो गईं , वह हँसी रोके नहीं रुकती थी ।
- स्वामी गम्भीरानन्द
।। जय श्री कृष्ण ।।
प्रशान्त जे के शर्मा
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